ये परबतों के दयारे ये शाम का धुआं - The Indic Lyrics Database

ये परबतों के दयारे ये शाम का धुआं

गीतकार - साहिर लुधियानवी | गायक - मोहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर | संगीत - चित्रगुप्त | फ़िल्म - वासना | वर्ष - 1968

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ये पर्बतों के दायरे ये शाम का धुआँ
ऐसे में क्यों न छेड़ दें दिलों की दास्ताँज़रा सी ज़ुल्फ़ खोल दो फ़िज़ा में इत्र घोल दो
नज़र जो बात कह चुकी वो बात मुँह से बोल दो
कि झूम उठे निगाह में बहार का समाँ
ये पर्बतों के दायरे ...ये चुप भी एक सवाल है अजीब दिल का हाल है
हर इक ख़याल खो गया बस अब यही ख़याल है
कि फ़ासला न कुछ रहे हमारे दर्मियाँ
ये पर्बतों के दायरे ...ये रूप रंग ये फबन चमक्ते चाँद सा बदन
बुरा न मानो तुम अगर तो चूम लूँ किरण किरण
कि आज हौसलों में है बला की गर्मियाँ
ये पर्बतों के दायरे ...