दुःख सुख था एक सबका - The Indic Lyrics Database

दुःख सुख था एक सबका

गीतकार - ज़फर गोरखपुरी | गायक - पंकज उधास | संगीत - Nil | फ़िल्म - Nil | वर्ष - Nil

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दुःख सुख था एक सबका
अपना हो या बेग़ाना
एक वो भी था ज़माना
एक ये भी था ज़माना
दादा हयात थे जब, मिटटी का एक घर था
चोरों का कोई खटका ना डाकुओं का डर था
खाते थे रूखी सुखी, सोते थे नींद गहरी
शामें भरी-भरी थी, आबाद थी दोपहरी
संतोष था दिलों को, माथे पे बल नहीं था
दिल में कपट नहीं था, आँखों में छल नहीं था
थे लोग भोलेभाले लेकिन थे प्यार वाले
दुनिया से कितनी जल्दी, सब हो गए रवाना
अबब का वक़्त आया, तालीम घर में आई
तालीम साथ अपने ताज़ा विचार लाई
आगे रवायतों से बढ़ने का ध्यान आया
मिट्टी का घर हटा तो पक्का मकान आया
दफ्तर की नौकरी थी, तनख़्वाह का सहारा
मालिक पे था भरोसा, हो जाता था गुज़ारा
पैसा अगरचे कम था, फिर भी न कोई ग़म था
कैसा भर पूरा था अपना गरीब खाना
अब मेरा दौर है ये, कोई नहीं किसी का
हर आदमी अकेला, हर चेहरा अजनबी सा
आँसू न मुस्कराहट, जीवन का हाल ऐसा
अपनी खबर नहीं है, माया का जाल ऐसा
पैसा है मर्तबा है, इज़्ज़त वक़ार भी है
नौकर हैं और चाकर, बंगला है कार भी है
ज़र पास है ज़मीं है, लेकिन सुकूँ नहीं है
पाने के वास्ते कुछ, क्या क्या पड़ा गवाना
ऐ आने वाली नस्लों, ऐ आने वाले लोगों
भोगा है हमने जो कुछ, वो तुम कभी न भोगो
जो दुःख था साथ अपने तुमसे करीब न हो
पीड़ा जो हमने झेली तुमको नसीब न हो
जिस तरह भीड़ में हम ज़िंदा रहे अकेले
वो ज़िन्दगी की महफ़िल तुमसे न कोई ले ले
तुम जिस तरफ से गुज़रो मेला हो रौशनी का
रास आए तुमको मौसम इक्कीसवीं सदी का
हम तो सुकूँ को तरसे, तुमपर सुकून बरसे
आनंद हो दिलों में, जीवन लगे सुहाना