हर ज़बान रुकी ऐ वतन के नौजवानों - The Indic Lyrics Database

हर ज़बान रुकी ऐ वतन के नौजवानों

गीतकार - मजरूह सुल्तानपुरी | गायक - गीता दत्त, सहगान | संगीत - ओपी नैय्यर | फ़िल्म - बाज़ | वर्ष - 1953

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ओ ओ आ
हर ज़बां रुकी रुकी, हर नज़र झुकी झुकी
क्या यही है ज़िंदगी, क्या यही है ज़िंदगीऐ वतन के नौजवानों, जाग और जगा के चल-२
(कोरस: जाग और जगा के चल)
ज़ुल्म जिस कदर बढ़े, और सर उठा के चल
(कोरस: जाग और जगा के चल)(काम्प है तेरी नज़र, उनके दिल में चोर है
उन में बल है, तेरे भी बाज़ुओं ज़ोर है) -२
ज़ालिमों का हुरूर ख़ाक में मिला के चल
ऐ वतन के नौजवानों ...(क्या समंदरों का शोर, और भँवर की चाल है
तेरे आगे सर उठाए, मौज की मजाल क्या) -२
खोल ज़िंदगी की नाव, बादबां उड़ा के चल
ऐ वतन के नौजवानों ...(कारवां वतन का आज डाकुओं में घिर गया
ज़ुल्म के अंधेरे में आ रही है इस सदा) -२
इंतेक़ाम का मशाल हाथ में जला के चलकोरस: इंतेक़ाम, इंतेक़ाम, इंतेक़ाम